Wednesday, June 30, 2010

विलासिता का दुख

विलासिता का दुख

जब कभी भी किसी विकसित देश में उपलब्ध आम जनसुविधओं के बारे में सुनता या पढ़ता हूं तो हृदय से हूक उठ जाती है। अब इसका अर्थ आप यह कदापि ग्रहण न करें कि मैं उनकी सुविधा-सम्पन्नता से जल उठता हूं। बिना किसी आत्म प्रवंचना के कहूं तो मुझे यह उनकी विपन्नता ही नजर आती है। सुख-सुविधाओं का जो मायाजाल अपने देश में निहित है वह कहीं ओर कहां हो सकता है। अब आप ही बताइए वो सुविधा किस काम की जो आप को बांध कर ही रख दे। सुना है अमेरिका में बिजली कटौती न के बराबर है। यदि ऐसा है तो वहां के घरों में रहने वाले लोग इक्का-दुक्का मौकों पर ही एक-साथ घर से बाहर निकलते होंगे। अब अपने यहां देखिए दिन में दसियों घंटों तक तो बिजली गुल रहती है, बिजली होती भी है तो जल देवता नदारद मिलते हैं। इन दोनों ही अवसरों पर जमावड़ा चौक पर होता है। दिन में 24 घंटों में से 16 घंटे तक रौनक घर के बाहर ही होती है और ऐसे अवसरों पर जो मुख और श्रवण सुख मनुष्येन्द्रियों को प्राप्त होता है, वह भला उन पाश्चात्य देशों में रहने वाले लोगों को कहा मिलता होगा। अपने यहां की महिलाएं एवं पुरुष दोनों ही इस अवसर का लाभ अपने दिल की भड़ास निकालने के लिए बखूबी करते हैं। दूसरों की बुराइयां करने में जो सुख मिलता है वो भला 5 सितारा होटलों में अब बताइएं यह किस काम की विकसिता। ट्रेफिक नियमों के संबंध में भी वहां फैली विषयता झलकती है। बी.एम.डब्ल्यू, मर्सिडीज आदि जैसी अनेक हाई क्लास भारी-भरकम गाड़ियां भी अदनी-सी रेड लाइट के इशारे पर नाचती हैं, अपने यहां तो लखटकिया वाली छकड़ा गाड़ी भी काले धुंए का गुबार उड़ाती हुई फर्राटे से ट्रैफिक नियमों को धत्ता बताकर रख देती है। बड़ी-बड़ी गाड़ीवालों का तो कहना ही क्या! वो तो जब तक जी चाहा रोड पर, नहीं तो फुटपाथ पर दौड़ पड़ती हैं विदेशों में मॉडर्न ऑर्ट की मांग बहुत हो, परन्तु वहां पर इस कार्य के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। अपने यहां तो लोग मुंह में कूची लेकर घूमते रहते हैं। जहां दिल किया पच्च... पिचकारी मारी और दीवार पर मॉडर्न ऑर्ट तैयार। जबकि विदेशों में तो सड़क पर थूकने पर ही जुर्माने का प्रावधान है। अब आप ही बताइए यह कहा का इंसाफ है कि मनुश्य को सोने के पिंजरे में कैद करके रखा जाए। संभवत: यह सारी कमियां वहां के प्रशासन की देन है। हम अपने विकास के पाषाणयुग को भी नहीं भूलते बल्कि उसका यदा-कदा प्रदर्शन सांसद में कर उसका सीध प्रसारण देश भर में करवा देते हैं ताकि हमारी वास्तविक पहचान छोटे-छोटे बच्चों तक के हृदय में स्थायी बनी रहे। हम अपनी शारीरिक क्षमता एवं धाराप्रवाह बोलने की दक्षता का सटीक अवलोकन संसद में माइक, कुर्सी, मेज तोड़कर तथा धरने के दौरान चीख-पुकार कर दर्शा देते हैं। हमारे मन में जब भी भड़ास उत्पन्न होती है, तो उसे सरकारी वस्तुओं यथा बस, ट्रेन के शीशे, खंभे, ग्रिलों आदि पर इत्मीनान से निकाल देते हैं। अब आप ही कहें, ऐसा क्या वहां संभव है। वहां के लोग घरों के अंदर दुबक कर सोते हैं। अपने यहां तो आम आदमी रात को चने चबाकर पानी का घूंट मारकर तसल्ली से ग्रहों से विचार-विमर्श कर सोता है। वहां पर लोग विकेंड सिस्टम से चलते हैं परन्तु अपने सरकारी कर्मचारी तो कार्यालय में रहकर भी विकेंड मनाते हैं। ऐसी विसंगतियों के चलते यदि वह यह भ्रम मन में पाल कर बैठें हैं कि वह विकसित है, तो मैं इस पर सिर्फ खिसयानी हंसी ही हंस सकता हूं।

अरविन्द सारस्वत

अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी


प्यारी मां और बाबा ,

चरण - स्पर्श ।

मुझे मालूम है बाबा , लिफाफे पर मेरी हस्तलिपि देखकर लिफाफे को खोलते हुए तुम्हारे हाथ कांप गए होंगे । तुम बहुत एहतियात के साथ लिफाफा खोलोगे कि भीतर रखा हुआ मेरा खत फट न जाए।
सोचते होगे कि एक साल बाद आखिर मैं तुमलोगों को खत क्यों लिखने बैठी । कभी तुम अपने डाकघर से , कभी बाबला या बउदी अपने आफिस से फोन कर ही लेते हैं फिर खत लिखने की क्या ज़रूरत । नहीं , डरो मत , ऐसा कुछ भी नया घटित नहीं हुआ है । कुछ नया हो भी क्या सकता है।

बस , हुआ इतना कि पिछले एक सप्ताह से मैं अपने को बार-बार तुमवलोगों को खत लिखने से रोकती रही । क्यों ? बताती हूं । तुम्हें पता है न , बम्बई में बरसात का मौसम शुरु हो गया है । मैं तो मना रही थी कि बरसात जितनी टल सके , टल जाए , लेकिन वह समय से पहले ही आ धमकी । और मुझे जिसका डर था , वही हुआ । इस बार बरसात में पार्क की गीली मिट्टी सनी सड़क से उठकर उन्हीं लाल केंचुओं की फौज घर के भीतर तक चली आई है । रसोई में जाओ तो मोरी के कोनों से ये केंचुए मुंह उचका-उचका कर झांकते हैं , नहाने जाओ तो बाल्टी के नीचे कोनों पर वे बेखौफ चिपके रहते हैं । कभी-कभी पैरों के नीचे अचानक कु? पिलपिला सा महसूस होता है और मैं डर जाती हूं कि कहीं मेरे पांव के नीचे आकर कोई केंचुआ मर तो नहीं गया ?

इस बार मुझे बांकुड़ा का वह अपना ( देखो ,अब भी वही घर अपना लगता है ) घर बहुत याद आया । बस , ये यादें ही तुम्हारे साथ बांटना चाहती थी । पता नहीं तुम्हें याद है या नहीं , पता नहीं बाबला को भी याद होगा या नहीं , हम कितनी बेसब्री से बरसात के आने का इन्तज़ार करते थे । मौसम की पहली बरसात देखकर हम कैसे उछलते-कूदते मां को बारिश के आने की खबर देते जैसे पानी की बूंदें सिर्फ़ हमें ही दिखाई देती हैं , और किसी को नहीं । पत्तों पर टप-टप-टप बूंदों की आवाज़ और उसके साथ हवा में गमकती फैलती मिट्टी की महक हमें पागल कर देती थी , हम अख़बार को काट-काट कर कागज़ की नावें बनाते और उन्हें तालाब में छोड़ते । मां झींकती रहतीं और हम सारा दिन पोखर के पास और आंगन के बाहर , हाथ में नमक की पोटली लिए , बरसाती केंचुओं को ढूंढते रहते थे । वे इधर-उधर बिलबिलाते से हमसे छिपते फिरते थे और हम उन्हें ढूंढ-ढूंढ कर मारते थे । नमक डालने पर उनका लाल रंग कैसे बदलता था , केंचुए हिलते थे और उनका शरीर सिकुड़कर रस्सी हो जाता था । बाबला और मुझमें होड़ लगती थी कि किसने कितने ज्यादा केंचुओं को मारा । बाबला तो एक -एक केंचुए पर मुट्ठी भर- भर कर नमक डाल देता था ।

मां , तुम्हें याद है , तुम कितना चिल्लाती थीं बाबला पर -- इतना नमक डालने की क्या जरूरत है रे खोका । पर फिर हर बार जीतता भी तो बाबला ही था -- उसके मारे हुए केंचुओं की संख्या ज्यादा होती थी । बाबा , तुम डाकघर से लौटते तो पूछते -- तुम दोनों हत्यारों ने आज कितनों की हत्या की ? फिर मुझे अपने पास बिठाकर प्यार से समझाते -- बाबला की नकल क्यों करती है रे । तू तो मां अन्नपूर्णा है , देवीस्वरूपा , तुझे क्या जीव - जन्तुओं की हत्या करना शो भा देता है ? भगवान पाप देगा रे ।

आज मुझे लगता है बाबा , तुम ठीक कहते थे । हत्या चाहे मानुष की हो या जीव-जन्तु की , हत्या तो हत्या है ।

तो क्या बाबा , उस पाप की सज़ा यह है कि बांकुड़ा के बांसपुकुर से चलकर इतनी दूर बम्बई के अंधेरी इलाके के महाकाली केव्स रोड के फ्लैट में आने के बाद भी वे सब केंचुए मुझे घेर-घेर कर डराते हैं , जिन्हें पुकुर के आस-पास नमक छिड़क छिड़क कर मैंने मार डाला था ।

यह मेरी शादी के बाद की पांचवीं बरसात है । बरसात के ठीक पहले ही तुमने मेरी शादी की थी । जब बांकुड़ा से बम्बई के लिए मैं रवाना हुई , तुम सब की नम आंखों में कैसे दिए टिमटिमा रहे थे जैसे तुम्हारी बेटी न जाने कौन से परीलोक जा रही है जहां दिव्य अप्सराएं उसके स्वागत में फूलों के थाल हाथों में लिए खड़ी होंगी । यह परीलोक , जो तुम्हारा देखा हुआ नहीं था पर तुम्हारी बेटी के सुन्दर रूप के चलते उसकी झोली में आ गिरा था , वर्ना क्या अन्नपूर्णा और क्या उसके डाकिए बापू शिबू मंडल की औकात थी कि उन्हें रेलवे की स्थायी नौकरी वाला सुदर्शन वर मिलता ? तुम दोनों तो अपने जमाई राजा को देख -देख कर ऐसे फूले नहीं समाते थे कि मुझे बी.ए. की सालाना परीक्षा में भी बैठने नहीं दिया और दूसरे दर्जे की आरक्षित डोली में बिठाकर विदा कर दिया । जब मैं अपनी बिछुआ-झांझर संभाले इस परीलोक के द्वार दादर स्टेशन पर उतरी तो लगा जैसे तालाब में तैरना भूल गई हूं । इतने आदमी तो मैंने अपने पूरे गांव में नहीं देखे थे । यहां स्टेशन के पुल की भीड़ के हुजूम के साथ सीढ़ियां उतरते हुए लगा जैसे पेड़ के सूखे पत्तों की तरह हम सब हवा की एक दिशा में झर रहे हैं । देहाती सी लाल साड़ी में तुम्हारे जीवन भर की जमा-पूंजी के गहने और कपड़ों का बक्सा लिए जब अंधेरी की ट्रेन में इनके साथ बैठी तो साथ बैठे लोग मुझे ऐसे घूर रहे थे जैसे मैं और बाबला कभी -कभी कलकत्ता के चिड़ियाघर में वनमानुष को घूरते थे । और जब महाकाली केव्स रोड के घर का जंग खाया ताला खुला तो जानते हो , सबसे पहले दहलीज़ पर मेरा स्वागत किसने किया था __ दहलीज़ की फांकों में सिमटे-सरकते , गरदन उचकाते लाल-लाल केंचुओं ने । उस दिन मैं बहुत खुश थी । मुझे लगा , मेरा बांकुड़ा मेरे आंचल से बंधा-बंधा मेरे साथ-साथ चला आया है । मैं मुस्कुराई थी । पर मेरे पति तो उन्हें देखते ही खूंख्वार हो उठे । उन्होंने चप्पल उठाई और चटाख् - चटाख् सबको रौंद डाला । एक - एक वार में इन्होंने सबका काम तमाम कर डाला था । तब मेरे मन में पहली बार इन केंचुओं के लिए माया -ममता उभर आई थी । उन्हें इस तरह कुचले जाते हुए देखना मेरे लिए बहुत यातनादायक था



हमें एकान्त देकर आखिर इनकी मां और बहन भी अपने घर लौट आई थी । अब हम रसोई में परदा डालकर सोने लगे थे । रसोई की मोरी को लाख बंद करो , ये केंचुए आना बंद नहीं करते थे । पति अक्सर अपनी रेलवे की ड्यूटी पर सफर में रहते और मैं रसोई में । और रसोई में बेशुमार केंचुए थे । मुझे लगता था , मैंने अपनी मां की जगह ले ली है और मुझे सारा जीवन रसोई की इन दीवारों के बीच इन केंचुओं के साथ गुजारना है । एक दिन एक केंचुआ मेरी निगाह बचाकर रसोई से बाहर चला गया और सास ने उसे देख लिया । उनकी आंखें गुस्से से लाल हो गईं । उन्होंने चाय के खौलते हुए पानी की केतली उठायी और रसोई में बिलबिलाते सब केंचुओं पर गालियां बरसाते हुए उबलता पानी डाल दिया । सच मानो बाबा , मेरे पूरे शरीर पर जैसे फफोले पड़ गए थे , जैसे खौलता हुआ पानी उनपर नहीं , मुझ पर डाला गया हो । वे सब फौरन मर गए , एक भी नहीं बचा । लेकिन मैं ज़िन्दा रही । मुझे तब समझ में आया कि मुझे अब बांकुड़ा के बिना ज़िन्दा रहना है । पर ऐसा क्यों हुआ बाबा , कि मुझे केंचुओं से डर लगने लगा । अब वे जब भी आते , मैं उन्हें वापस मोरी में धकेलती , पर मारती नहीं । उन दिनों मैंने यह सब तुम्हें ख़त में लिखा तो था , पर तुम्हें मेरे ख़त कभी मिले ही नहीं । हो सकता है , यह भी न मिले । या मिल भी जाए तो तुम कहो कि नहीं मिला । फोन पर मैंने पूछा भी था - चिट्ठी मिली ? तुमने अविश्वास से पूछा - पोस्ट तो की थी या ..... । मैं हंस दी थी - अपने पास रखने के लिए थोड़े ही लिखी थी । तुमने आगे कुछ नहीं कहा । और बात ख़तम ।

फोन पर इतनी बातें करना संभव कहां है । फोन की तारों पर मेरी आवाज़ जैसे ही तुम तक तैरती हुई पहुंचती है , तुम्हें लगता है , स--ब ठीक है । जैसे मेरा जिन्दा होना ही मेरे ठीक रहने की निशानी है । और फोन पर तुम्हारी आवाज़ सुनकर मैं परेशान हो जाती हूं क्योंकि फोन पर मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि तुम जिस आवाज़ को मेरी आवाज़ समझ रहे हो , वह मेरी नहीं है । तुम फोन पर मेरा कुशल - क्षेम ही सुनना चाहते हो और मैं तुम्हें केंचुओं के बारे में कैसे बता सकती हूं ? तुम्हारी आवाज़ से मैं चाहकर भी तो लिपट नहीं सकती । मुझे तब सत्रह सौ किलोमीटर की दूरी बुरी तरह खलने लगती है । इतनी लम्बी दूरी को पारकर डेढ़ साल पहले जब मैं वहां बांकुड़ा पहुंची थी , मुझे लगा था , मैं किसी अजनबी गांव में आ गई हूं जो मेरा नहीं है । मुझे वापस जाना ही है , यह सोचकर मैं अपने आने को भी भोग नहीं पाई । मैंने शिथिल होकर खबर दी थी कि मुझे तीसरा महीना चढ़ा है । मैं आगे कुछ कह पाती कि तुम सब में खुशी की लहर दौड़ गई थी । मां ने मुझे गले से लगा लिया था , बउदी ने माथा चूम लिया था । मैं रोई थी , चीखी थी , मैंने मिन्नतें की थीं कि मुझे यह बच्चा नहीं चाहिए , कि उस घर में बच्चे की किलकारियां सिसकियों में बदल जाएंगी , पर तुम सब पर कोई असर नहीं हुआ । तुम चारों मुझे घेरकर खड़े हो गए -- भला पहला बच्चा भी कोई गिराता है , पहले बच्चे को गिराने से फिर गर्भ ठहरता ही नहीं , मां बनने में ही नारी की पूर्णता है , मां बनने के बाद सब ठीक हो जाता है , औरत को जीने का अर्थ मिल जाता है । मां , तुम अपनी तरह मुझे भी पूर्ण होते हुए देखना चाहती थी । मैंने तुम्हारी बात मान ली और तुम सब के सपनों को पेट में संजोकर वापस लौट गई ।

वापस । उसी महाकाली की गुफाओं वाले फ्लैट में । उन्हीं केंचुओं के पास । बस , फर्क यह था कि अब वे बाहर फर्श से हटकर मेरे शरीर के भीतर रेंग रहे थे । नौ महीने मैं अपने पेट में एक दहशत को आकार लेते हुए महसूस करती रही । पांचवे महीने मेरे पेट में जब उस आकार ने हिलना-डुलना शुरु किया , मैं भय से कांपने लगी थी । मुझे लगा , मेरे पेट में वही बरसाती केंचुए रेंग रहे हैं , सरक रहे हैं । आखिर वह घड़ी भी आई , जब उन्हें मेरे शरीर से बाहर आना था और सच मां , जब लम्बी बेहोशी के बाद मैंने आंख खोलकर अपनी बगल में लेटी सलवटों वाली चमड़ी लिए अपनी जुड़वां बेटियों को देखा , मैं सकते में आ गई । उनकी शक्ल वैसी ही गिजगिजी लाल केंचुओं जैसी झुर्रीदार थी । मैंने तुमसे कहा भी था -- देखो तो मां , ये दोनों कितनी बदशक्ल हैं , पतले -पतले ढीले -ढाले हाथ -पैर और सांवली -मरगिल्ली सी । तुमने कहा था - बड़ी बोकी है रे तू , कैसी बातें करती है , ये तो साक्षात् लक्ष्मी - सरस्वती एक साथ आई हैं तेरे घर । तुम सब ने कलकत्ता जाकर अपनी बेटी और जमाई बाबू के लिए कितनी खरीदारी की थी , बउदी ने खास सोने का सेट भिजवाया था । सब दान-दहेज समेटकर तुम यहां आई और चालीस दिन मेरी , इन दोनों की और मेरे ससुराल वालों की सेवा-टहल करके

लौट गईं । इन लक्ष्मी - सरस्वती के साथ मुझे बांधकर तुम तो बांकुड़ा के बांसपुकुर लौट गईं , मुझे बार-बार यही सुनना पड़ा - एक कपालकुण्डला को अस्पताल भेजा था , दो को और साथ ले आई ।

बाबा , कभी मन होता था - इन दोनों को बांधकर तुम्हारे पास पार्सल से भिजवा दूं कि मुझसे ये नहीं संभलतीं , अपनी ये लक्ष्मी सरस्वती सी नातिनें तुम्हें ही मुबारक हों पर हर बार इनकी बिटर-बिटर सी ताकती हुई आंखें मुझे रोक लेती थीं ।

मां, मुझे बार-बार ऐसा क्यों लगता है कि मैं तुम्हारी तरह एक अच्छी मां कभी नहीं बन पाऊंगी जो जीवन भर रसोई की चारदीवारी में बाबला और मेरे लिए पकवान बनाती रही और फालिज की मारी ठाकुर मां की चादरें धोती - समेटती रही । तुम्हारी नातिनों की आंखें मुझसे वह सब मांगती हैं जो मुझे लगता है , मैं कभी उन्हें दे नहीं पाऊंगी ।

इन पांच सात महीनों में कब दिन चढता था , कब रात ढल जाती थी , मुझे तो पता ही नहीं चला । इस बार की बरसात ने आकर मेरी आंखों पर छाए सारे परदे गिरा दिए हैं । ये दोनों घिसटना सीख गई हैं । सारा दिन कीचड़ मिट्टी में सनी केंचुओं से खेलती रहती हैं । जब ये घुटनों घिसटती हैं , मुझे केंचुए रेंगते दिखाई देते हैं और जब बाहर सड़क पर मैदान के पास की गीली मिट्टी में केंचुओं को सरकते देखती हूं तो उनमें इन दोनों की शक्ल दिखाई देती है । मुझे डर लगता है , कहीं मेरे पति घर में घुसते ही इन सब पर चप्पलों की चटाख - चटाख बौछार न कर दें या मेरी सास इन पर केतली का खौलता हुआ पानी न डाल दें । मैं जानती हूं , यह मेरा वहम है पर यह लाइलाज है और मैं अब इस वहम का बोझ नहीं उठा सकती ।

इन दोनों को अपने पास ले जा सको तो ले जाना । बाबला और बउदी शायद इन्हें अपना लें । बस , इतना चाहती हूं कि बड़ा होने पर ये दोनों अगर आसमान को छूना चाहें तो यह जानते हुए भी कि वे आसमान को कभी छू नहीं पाएंगी , इन्हें रोकना मत ।

इन दोनों के रूप में तुम्हारी बेटी तुम्हें सूद सहित वापस लौटा रही हूं । इनमें तुम मुझे देख पाओगे शायद ।

बाबा , तुम कहते थे न - आत्माएं कभी नहीं मरतीं । इस विराट व्योम में , शून्य में , वे तैरती रहती हैं -- परम शान्त होकर । मैं उस शान्ति को छू लेना चाहती हूं । मैं थक गई हूं बाबा । हर शरीर के थकने की अपनी सीमा होती है । मैं जल्दी थक गई , इसमें दोष तो मेरा ही है । तुम दोनों मुझे माफ कर सको तो कर देना । इति ।



सुधा अरोड़ा